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Tuesday, 8 May 2012

गुडिया जी


गुडिया सिंह परिहार जी को समर्पित 




जितनी सुन्दर आप हो गुडिया उतनी सुन्दर रचना है 
इक इक शब्द में जान भरी है क्या सुन्दर संरचना है 


मन को भा जाती है मेरे पंक्ति पंक्ति इस कविता की
पढ़ता हूँ तो खो जाता हूँ सो जाता हूँ गुडिया जी 


खो जाता हूँ स्वप्नलोक में स्पंदन सा ह्रदय करे 
जैसे मोती और धागा इक दूजे में विलय करें 


आपको देखूं या मैं देखूं आपके सुन्दर वस्त्रों को
भ्रमित किया है आपने मुझको क्या देखूं मैं शब्दों को


दुल्हन के लिवास में ये शर्माना और ये इठलाना
भा जाता है कविता पढ़ना और आपक बल खाना ...


सचिन पुरवार जी 

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